क्या हम जीवन की उपेक्षा कर रहे हैं?
ज़िन्दगी में ऐसा क्यों है की जब भी हमारे साथ कोई अनहोनी होती है तो हमको एक एहसास होता है की हमने अपने जीवन का अनमोल समय गवा दिया।
हमको इसकी अनुभूति पहले क्यों नहीं होती ?
ऐसा क्या है जो हमको हमारे पथ से भटका देता है?
यह केवल हमारे मन का फैलाया एक माया जाल है।
यह समझने के लिए चलिए एक उद्धरण लेते है , मानिये कोई आपको एक बहुमूल्य हार दे और आप उसके चमक धमक देखकर उसको अपने पास रख ले। अब सोचिये कोई आपके साथ यही जो हमेशा उस हार पर नज़र बनाये है। वो हमको बहुत अधिक भिन्न गतिविधियों में उलझा देता है कि हम हार के बारे में ही भूल जाते है, और अपने उसपर अधिकार को भी भूल जाते है।
अब अगर इस उद्धरण को हम समझे तोह हमको यह पता चलेगा कि हम सभी किसी न किसी गतिविधि के चलते हमारी ज़िन्दगी कि अनमोल शिलाओं को भूल जाते है । हमारे जीवन कल के दौरान हम बहुत सारी बहुमूल्य कृपा से धन्य है। जैसे स्वास्त्य, प्रेम , रिश्ते-नाते , और आध्यात्मिक जीवन जो हमको एक मौका देती है कृष्ण चितना से जुड़ने का किन्तु हमारा मन हमारे ध्यान को एक अलग दिशा दे देता है और हमे हमारे धर्म से भटका देता है।
प्रलोभन और मंशा के पीछे हम अंधे होकर जब भागने लगते है को हम जीवन की वास्तविकता से दूर जा रहे होते है।
ऐसा क्यों है कि हम अध्यात्म की तरफ ओर जाते हुए कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
भगवद गीता (१८३७ ) हमको सचेत करने की कोशिश करता है कि आध्यात्मिक आनंद हमेशा एक करड़वी परत के भीतर होते है। और हम हमेशा या तो उससे जी चुराने लगते है या उससे मन ही हटा लेते है ।
(१८ ३८) अध्यात्म के विपरीत हम मीठी दिखने वाली वास्तु की कोर आकर्षण महसूस करने लगते है और उसके उपरांत की दर्द, दुःख और अशांति की ओर चलने लगते है।
हम इस तरह के विचलन को कैसे रोक सकते हैं? गीता जैसे ज्ञान-ग्रंथों को नियमित रूप से पढ़ने से जो हमें उन चीजों की याद दिलाते हैं जो वास्तव में मूल्यवान हैं। और गंभीर आध्यात्मिकों के साथ जुड़ते है जो उन मूल्यवान चीजों पर केंद्रित हैं।